sanjay mantri
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सुभाषितानि
न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं न कश्चित् कस्यचित् रिपु: ।
अर्थतस्तु निबध्यन्ते मित्राणि रिपवस्तथा।।
भावार्थ- न कोई किसी का मित्र है और न ही शत्रु, कार्यवश ही लोग मित्र और शत्रु बनते हैं॥
अहिंसा प्रथमं पुष्पं पुष्पमिन्द्रिय निग्रहः।
सर्वभूतदया पुष्पं क्षमा पुष्पं विशेषतः ॥
ज्ञानं पुष्पं तपः पुष्पं शान्तिः पुष्पं तथैव च ।
सत्यमष्टविधं पुष्पं विष्णोः प्रीतिकरं भवेत् ॥
भावार्थ – अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह, सब प्राणियों पर दया, क्षमा, ज्ञान, तप, ध्यान और सत्य-ये आठ पुष्प भगवान श्री विष्णु को प्रसन्न करने वाले हैं। अतएव भक्त का कर्त्तव्य है कि आठ पुष्पों के द्वारा भगवान की नित्य आराधना करे।
त्रीण्येव तु पदान्याहुः पुरुषस्योत्तमं व्रतम् ।
न द्रुह्येच्चैव दद्याच्च सत्यं चैव परं वदेत् ॥
भावार्थ- वेद मनुष्य के लिये तीन बातों को उत्तम व्रत बताते हैं । किसी के प्रति द्रोह न करें, उदार हाथ से दान दें तथा दूसरों से सदा सत्य बोले ।
अज्ञ: सुखमाराध्य: सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञ:।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि तं नरं न रञ्जयति ।।
भावार्थ –मूर्ख को सरलता पूर्वक समझाया जा सकता है। विद्वान् को उससे भी अधिक सरलता से समझाया जा सकता है किन्तु जिस अल्पज्ञानी को अपने ज्ञान का मिथ्या अभिमान हो उसे तो ब्रह्मा भी समझा नहीं सकते।
अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च ।
वंचनं चापमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ।।
भावार्थ – बुद्धिमान् पुरुष धन का नाश, मन का सन्ताप , अपने घर में दुश्चरित्र,ठगा जाना और अपमान को प्रकाशित न करे ।
अन्यायोपार्जितं वित्तं दस वर्षाणि तिष्ठति।
प्राप्ते चैकादशेवर्षे समूलं तद् विनश्यति।।
भावार्थ – अन्याय या गलत तरीके से कमाया हुआ धन दस वर्षों तक रहता है। लेकिन ग्यारहवें वर्ष वह मूलधन सहित नष्ट हो जाता है।
अबन्धुरबन्धुतामेति नैक्टयाभ्यास योगतः।
यात्यनभ्यासतो दूरात्स्नेहो बन्धुषु तानवम् ।। योगवाशिष्ठ ६/उ/६७/२९
भावार्थ – बार-बार मिलने पर अबन्धु भी बन्धु बन जाता है जबकि दूरी के कारण परस्पर मिलने का अभ्यास छूट जाने से भाई से भी स्नेह की कमी हो जाती है।
अल्पायां वा महत्यां वा सेनायामिति निश्चयः।
हर्षो योधगणस्यैको जयलक्षणमुच्यते ॥
अर्थ – सैन्य छोटा हो या बडा, हर एक सैनिक में लड़ने का उत्साह होना ही विजय प्राप्त करने का एक मात्र मुख्य लक्षण है।
अव्याहृतं व्याहृताच्छ्रेय आहुः सत्यं वदेद् व्याहृतं तद् द्वितीयम्।
प्रियं वदेद् व्याहृतं तत् तृतीयं धर्मं वदेद् व्याहृतं तच्चतुर्थम्।।
१- बोलने से न बोलना ही अच्छा बताया गया है- (यह वाणी की प्रथम विशेषता है)
२- बोलना ही पड़े तो सत्य बोलना चाहिए क्योंकि यह मौन की अपेक्षा अधिक लाभप्रद है (यह वाणी की दूसरी विशेषता है)
३- सत्य और प्रिय बोलना (यह वाणी की तीसरी विशेषता है)
४- सत्य और प्रिय के साथ ही धर्मसम्मत भी कहा जाये। प्रत्येक स्तर श्रेष्ठ वाणी का परिमाण है। (यह वाणी की चौथी विशेषता है)
अहिं नृपं च शार्दूलं वृद्धं च बालकं तथा ।
परश्वानं च मूर्खं च सप्त सुप्तान्न बोधयेत् ॥
अर्थ – सर्प, राजा,सिंह,वृद्ध, बालक, दूसरे का कुत्ता और मूर्ख ये सातों यदि सोए हुए हो तो नहीं जगाना चाहिए।
आत्मनो मुखदोषेण बध्यन्ते शुकसारिकाः।
बकास्तत्र न बध्यन्ते मौनं सर्वार्थसाधनम्।।
भावार्थ – अपने मुख के दोष (मधुर आवाज) के कारण तोता और मैना बंध जाते हैं, परन्तु बगुला नहीं बंधता (क्योंकि बगुला अपना काम विना बोले चुपचाप करता है )। अतः मौन ही सभी अर्थ को सिद्ध करने का साधन है ।
उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम्।
मौनेन कलहो नास्ति जागृतस्य च न भयम्॥
भावार्थ – उद्यम करने से दरिद्रता तथा जप करने वाले को पाप, मौन रहने से कलह नहीं होता और जागते रहने से अर्थात् सजग रहने से भय नहीं होता।
कार्यमण्वपि काले तु कॄतमेत्युपकारताम् ।
महदप्युपकारोऽपि रिक्ततामेत्यकालत: ।।
भावार्थ- किसी का छोटा सा भी काम अगर सही समय पर कर दें तो वह उपकारक होता है। परंतु अगर असमय बड़ा किया गया उपकार भी किसी काम का नहीं रह जाता।
कोकिलानां स्वरो रूपं नारीरुपं पतिव्रतम्।
विद्यारूपं कुरूपीणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्।।
भावार्थ- कोयल का स्वर ही उस की सुन्दरता है । नारी की सुन्दरता उसकी पतिव्रता होने में है । कुरुप लोगों की सुंदरता उन की विद्वत्ता में होती हैं और क्षमा करने का गुण ही तपस्वी जनों की सुन्दरता है ।
गुरुशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा |
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते ||
भावार्थ – विद्या की प्राप्ति या तो लगन और श्रद्धा पूर्वक अपने गुरु की सेवा के द्वारा,अथवा प्रचुर मात्रा में धन व्यय करने से, तथा विद्या के आदान प्रदान से होती है | इन तीनों के अतिरिक्त अन्य कोई चौथी विधि विद्या प्राप्ति के लिये उपलब्ध नहीं है |
जरा रूपं हरति हि धैर्यमाशा मृत्युः प्राणान्धर्मचर्यामसूया ।
क्रोधः श्रियं शीलमनार्यसेवा ह्रियं कामः सर्वमेवाभिमानः॥
अर्थ – बुढ़ापा रूप का हरण करता है। आशा से धैर्य का हरण होता है। मृत्यु से प्राण का हरण होता हैं । मत्सर से धर्माचरण का , क्रोध से सम्पत्ति का तथा दुष्टों की सेवा करने से शील का नाश होता हैं । कामवासना से लज्जा का तथा अभिमान से समस्त गुणों का अन्त होता हैं । (महाभारत उद्योग पर्व ३५.५०)
जीवन्तोऽपि मृताः पञ्च व्यासेन परिकीर्तिताः |
दरिद्रो व्याधितो मूर्खः प्रवासी नित्यसेवकः ||
अर्थ – धर्मशास्त्रों के व्याख्याकारों द्वारा यही उद्घोषित किया जाता है कि दरिद्र, बीमार, मूर्ख, अपने परिवार से दूर विदेश मे रहने वाले तथा बंधुआ मजदूर , ये पांच प्रकार के व्यक्ति दीर्घजीवी होने पर भी एक मृतक के समान होते हैं।
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ,ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे,आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।
अर्थ – एक व्यक्ति को छोड़ने पर वंश की भलाई हो तो उसको छोड़ दे ।किसी ग्राम का त्याग करने पर देश की भलाई हो तो उस ग्राम का परित्याग करे ,भूमि को छोडने पर अपनी भलाई हो तो उस भूमि ( सब कुछ ) को छोड़ देना चाहिए ।
त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं दाराश्च भृत्याश्च सुहृज्जनाश्च।
तं चार्थवन्तं पुनराश्रयन्ते अर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धुः॥
भावार्थ- धन विहीन को मित्र, पत्नी, नौकर, बन्धु-बान्धव साथ छोड़ देते हैं। हैं। वे पुनः धनवान् के साथ रहने लगते हैं। धन ही संसार में लोगों का बन्धु है।
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति ।
भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम् ॥
अर्थ – देना, स्वीकारना, गुप्त बात बताना, पूछना, खाना और खिलाना – ये छ: प्रीति (प्रेम) के लक्षण हैं।
धनलुब्धो ह्यसन्तुष्टोऽनियतात्माऽजितेन्द्रिय : ।
सर्वा एवापदस्तस्य यस्य तुष्टं न मानसम् ।।
अर्थ –जिसका चित्त सन्तुष्ट नहीं है, वैसा असन्तुष्ट धनलोभी,मन को वश में न करने से इन्द्रिय को भी जीत नहीं सकता है,उसको सब आपत्तियाँ घेरे रहती हैं ।
धनधान्य प्रयोगेषु विद्या सङ्ग्रहणे तथा।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्॥
भावार्थ- धन धान्य के आदान प्रदान में, किसी से विद्या प्राप्ति में, भोजन तथा व्यवहार में लज्जा का परित्याग करने वाला सुखी होता है।
धर्मस्य दुर्लभो ज्ञाता सम्यग् वक्ता ततोऽपि च।
श्रोता ततोऽपि श्रद्धावान् कर्ता कोऽपि ततः सुधीः॥
भावार्थ – धर्म को जानने वाला दुर्लभ होता है, उससे भी दुर्लभ उसे श्रेष्ठ तरीक़े से बताने वाला, उससे दुर्लभ श्रद्धा से सुनने वाला और सबसे दुर्लभ धर्म का आचरण करने वाला सुबुद्धिमान् है ।
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
भावार्थ – विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है। (श्रीमद्भगवतगीता, अध्याय-२,श्लोक ६२-६३)
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा ,वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम् ।
धर्म: स नो यत्र न सत्यमस्ति, सत्यं न तद् यच्छलमभ्युपैति ॥ (महाभारत उ. ३५.५८)
अर्थ -वह सभा सभा नहीं है जहां वृद्ध न हों, वे वृद्ध वृद्ध नहीं हैं जो धर्म की बात नहीं कहते, वह धर्म धर्म नही है जिसमें सत्य न हो और वह सत्य सत्य नहीं है जो छल का सहारा लेता हो ।
परोऽपि हितवान् बन्धुः बन्धुरप्यहितः परः।
अहितो देहजो व्याधिः हितमारण्यमौषधम्॥
भावार्थ – रोग हमारे शरीर के भीतर रहते हुए हमारा अहित करती हैं तथा जंगल में रहने वाली औषधियाँ हमसे दूर रहकर भी भला करती हैं । अपना वंश या कुटुम्ब का न होते हुए भी जो हमारा हित करे वही वास्तव में बन्धु है और कुटुम्ब होते हुए भी हमारा अहित करे तो वह पराया होता है ।