rohit_420

My Real Life
2017-10-18 01:01:19 (UTC)

अपवित्र

चलो माना मैं अपवित्र हूँ,
तो क्यों तुम पूजते हो.....?
दुर्गा को, काली को,
जब तुम्हे करना ही मुझे अलग,
उन दिनों में जब मेरे ज़िस्म से,
लहू की धार बहती हैं हर माह में,
क्यों तुम दिखाते हो पवित्रता खुद में,
जब तुम मुझे छूने से भी कतराते हो उन दिनों.....
क्या ये गलत नहीं हैं.......?
क्या इसमें मेरी ख़ता हैं......?
जो मैं सहती हूँ इतना दर्द हर माह,
ठीक हैं माना मैंने मैं नापाक हूँ उन दिनों,
पर क्यों तुम मुझे उन दिनों में भी चाहते हो जिस्मानी,
गर तुम्हे नफरत मेरे लहू से,
तो तुम ही बताओ मैं क्या करूँ उन दिनों....?
कैसे लाऊं पवित्रता उन दिनों, तुम ही बता दो....?
क्या समझते हो मेरा दर्द तुम, क्या झेलते हो तुम ये तकलीफ,
नहीं ना...! क्योंकि तुम मर्द हो, और मैं औरत,
ये मेरी ही कहानी हैं, जो तुमसे पूछती हूँ,
क्या करूँ मैं, जिससे तुम मुझे आने दो अपने करीब उन दिनों......!

चलो माना मैं अपवित्र हूँ,
तो कैसे वो मूर्त पत्थर की पवित्र हो गई,
जिसका एक रूप मैं भी हूँ,
क्या मुझे तुमने पूजा है आज तक एक बार भी,
कभी तुमने मेरे खातिर कुछ किया हैं,
जिससे मुझे भी फ़ख्र हो,
क्यों क्या है जवाब तुम्हारा.....?
क्या ये दोगलापन नहीं हैं,
जो तुम करते हो मुझसे.....

चलो माना मैं अपवित्र हूँ,
मैं उन दिनों,
तो फिर क्यों मैं अपवित्र हूँ,
जब पहली रात में,
मेरे ज़िस्म से खून ना निकला,
तो क्या हुआ,
ना मैं अपवित्र थी, ना ही अपवित्र हूँ,
अपवित्र है सोच तुम्हारी,
क्या तुम नही हुए अपवित्र मुझे छू कर
मेरे ज़िस्म से खेल कर,
तुमने तो कह दिया मैं अपवित्र हूँ,
क्योंकि
मेरा लहू बहना या ना बहना ही निशानी हैं,
मेरी पवित्रता की,
तो क्या सबूत है तुम भी पवित्र थे पहली रात में,
जो मुझे छू कर अपवित्र हो गए....
क्या हैं कोई जवाब पास तुम्हारे......
तो फिर मैं क्यों अपवित्र हूँ.....?




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